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कविता

एक बार फिर अकाल

नीलेश रघुवंशी


दौड़ो दौड़ो दौड़ो
तुम्हारा जन्म ही दौड़ने के लिए हुआ
मत देखना कभी पीछे मुड़कर
कहीं तुम्हारे अपने तुम्हें आवाज न दे दें
अकाल अकाल अकाल प्रेम का अकाल!
महानगर बनने के कगार पर इसी शहर की
एक पॉश कॉलोनी में
संभव को असंभव और असंभव को संभव बनाती
ये बात कि
एक भले मानुस के विदेश में बसे
बड़े बेटे ने सारी संपत्ति
छोटे भाई को देने की गुहार की पिता से
संपत्ति के संग पिता को भी किया भाई के हिस्से!
जीवन अपनी गति से चल रहा था कि
कुएँ बावड़ी नदी पोखर सब सूखने लगे
पशुओं ने चरना और पक्षियों ने उड़ना किया बंद
बहुत बुरा हाल लोगों का
वे न जी पा रहे न मर पा रहे!
बुजुर्ग अपने ही घर में पराए हो गए
हुआ ये कि एक दिन
शाम की सैर से लौटे तो देखा
उनका कमरा अब उनका नहीं रहा
गेस्ट हाउस के छोटे से कमरे में
शिफ्ट कर दिया गया तिस पर
बढ़ती महँगाई के नाम पर सारी कटौती उनके हिस्से!

होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी बनाते
बुजुर्ग सज्जन ने अपना सब कुछ बेच दिया
दिन तो क्या कई महीने गुजर गए
विश्व भ्रमण से
सुखी परिवार जब वापस आया तो
अपने ही घर में किसी अजनबी को देख हकबका गया
प्रेम के अकाल को बगल में दबाए बुजुर्ग
कुछ भी कह सुन लिखकर नहीं गए
प्रेम के अकाल को
संपत्ति और बैंक बैलेंस के अकाल में बदलते
वे चले गए...!


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